दियोरिया कला के जंगल में गुप्तकालीन राजा बेन की कर्म स्थली ,इलाहाबांस देवल की ओर पुरातत्व विभाग का ध्यान नहीं जा रहा है।
पीलीभीत जिले में बीसलपुर तहसील मुख्यालय से 20 किलोमीटर दूर दियोरिया कला क्षेत्र में गुप्त काल के राजा बेल की कर्मस्थली के ऐतिहासिक तथ्यों और प्रमाणों को संजोये इलाहाबांस देवल प्रशासन और पुरा तत्व विभाग की अपेक्षा के कारण अपनी धरोहर खोता जा रहा है। साथ ही पुरातत्व स्थल के गर्भ से समय-समय पर निकलने वाली दुर्लभ मूर्तियां, शिलालेख और सोना, चांदी के सिक्के भी निजी मिल्कियत बनते जा रहे हैं। इस ऐतिहासिक स्थल का सीधा संबंध राजा बेन से है। बिलसंडा क्षेत्र के ग्राम मरौरी तथा पूरनपुर क्षेत्र के ग्राम शाहगढ़ तक करीब 30 किलोमीटर लंबी बेल्ट में इलाहाबांस मरौरी तथा शाहगढ़ समेत तीनों स्थानों पर रजा बेन के किले के अवशेष टीले के रूप में देखने को मिलते हैं। इलाहाबांस क्षेत्र में दूर से ही दिखाई देते हैं अवशेष विशाल सुरंग तथा तीनों टीले इस बात को सिद्ध करते हैं कि रजा बेन का मुख्य किला इलाहाबांस में ही है। यहां स्थित मुख्य टीले के कई दशक पूर्व एक महात्मा द्वारा की गई खुदाई के दौरान मिली 15 फुट की चौड़ी सुरंग के बारे में लोगों का मानना है कि राजा बेन शाहगढ़ व मरौरी के किले तक आने-जाने के लिए इसी सुरंग का उपयोग करते थे। लोगों का दावा है कि यदि सुरंग की खुदाई की जाए तो इसके दोनों स्थानों से संबंध का पता चल सकता है। किले की खुदाई करने वाले महात्मा प्रेमदास मूल रुप से पहाड़ी क्षेत्र के रहने वाले थे। जो बरसों पूर्व ग्राम दियोरिया कलां में आयोजित होने वाले रामलीला मेले में एक नाटक मंडली में आए थे। उस समय उनकी आयु करीब 16 वर्ष की थी। मेला समाप्त होने पर वह क्षेत्र की महिमा जानने के बाद ग्रामीणों के साथ इलाहाबास चले गए। कुछ दिन गांव में गुजारने के बाद उन्होंने समीप में स्थित मुख्य टीला को अपना बसेरा बना लिया। ग्रामीणों का कहना है कि बाबा प्रेमदास करीब 20 वर्षों तक किले पर रहे और इस दौरान उन्होंने अकेले ही टीले के काफी हिस्से को खोद डाला। खुदाई के दौरान टीले में विशालकाय सुरंग का पता चला। जिसकी चौड़ाई 15 फुट थी। जिसके दोनों और ककइया ईट की मजबूत दीवार बनी हुई थी। इस टीले के नीचे एक कुआं भी मिला जो आज भी मौजूद है। जबकि सुरंग को बाबा के चले जाने के बाद मिट्टी से पाट दिया गया। खुदाई के दौरान महात्मा टीला के अंदर अनेक मूर्तियां अवशेष भी मिले। जिन्हें जाते समय बाबा इस कुएं के अंदर डाल गए। ग्राम वासियों के मुताबिक खुदाई के दौरान पहाड़ी बाबा को सोने चांदी के सिक्के व एक मूर्ति भी मिली थी। जिसे आसपास के लोगों ने झटक लिया। जिसकी वजह से महात्मा नाराज हो गए। 5 वर्ष पूर्व वह अपने पाहड की ओर जाने की बात कह कर चले गए। तब से आज तक उनका कोई पता नहीं चला। यहां स्थित टीले के उत्तर तथा पूर्व दिशा में भी दो टीले स्थित हैं। बुजुर्गों का मानना है कि इस टीले के गर्भ में भी बहुमूल्य ऐतिहासिक संपदा छुपी हुई है। यदि इस टीले का खनन कराया जाए तो सोने चांदी के सिक्के प्रतिमाएं और पुरानी ईंटें वगैरा निकल सकती हैं। टीले के आसपास आज भी खेतों की जुताई की जाती है। तो मूर्तियां और सोने चांदी की वस्तुएं निकलतीं हैं। शिलालेख यहां की प्राचीन सभ्यता को प्रमाणित करते हैं। खुदाई के दौरान क्षेत्र में ग्रामीणों को पत्थरों की दीवारें मूर्तियां भी मिलीं तथा तमाम मूर्तियां पर भगवान बने हैं अभी जहां जहां बिखरी हुई मूर्तियां दिखाई व ग्रामीणों को मिलती हैं। अधिकांश मूर्तियां भगवान शिव की है जो उनके घरों में अभी भी सुरक्षित हैं। ग्रामीणों द्वारा बड़े पैमाने से किले की खुदाई करके ईंट पत्थर मिले हैं। इलाहाबांस ग्राम में ही सबसे अधिक मकान उन पत्थरों के बने हुए हैं यहां स्थित मुख्य टीले से पहले स्थित बारह देवी मंदिर स्थिति है। छोटे बड़े आधा दर्जन मंदिर अनेक में धर्मशालाएं बनी हुई हैं। इलाहाबांस में दो प्राचीन मंदिर भी हैं। जिसमें एक मंदिर महा बराह देवी का दूसरा मंदिर भगवती का है। विद्वानों का मत है कि इन मंदिरों में स्थापित प्रतिमाएं गुप्त काल की हैं। पुरातत्व के अनुसार राजा बेन की सात पुत्री थीं इनमें से एक पुत्री जो यहां पर समाधि हुई वहीं पर भवानी मंदिर स्थित है। प्राचीन मंदिर का कुआं को छोड़कर शेष मंदिर बाबा भावनाओं को श्रद्धालुओं ने स्वयं बनाया है। मां बारह मंदिर के समीप कुछ वर्ष पूर्व निर्मित मंदिर है। स्थापित प्राचीन मंदिर शिवलिंग भी है। प्राचीन भक्तों भावनाओं के शिलालेख में वर्णित भवन समूह है। बताते हैं कि उचित संरक्षण के अभाव के कारण शिलालेख पर अंकित पंक्तियांनष्ट हो गई हैं। गढ़ गजना स्थित है। वहां तक रजा बेन की सभ्यता मिलती है। गढ़ गजना के नाम से भी स्पष्ट है कि यहां किसी गाजी ने आक्रमण से संपूर्ण सभ्यता को नष्ट कर दिया है। वर्तमान में इलाहाबांस देवल में दशनाम जूना अखाड़ा के महंत कृष्णा नंद गिरि जी यहां विराजमान हैं यहां पर माह में प्रत्येक अमावस्या को देवी मेला लगता है। जिसमें हजारों श्रद्धालु पहुंचकर प्रसाद चढ़ाते हैं और मनौतियां मांगते हैं। पूरे क्षेत्र में इस देव स्थल का काफी महत्व है। प्रतिवर्ष यहां पर मेला लगता है बरेली के मोहल्ला कालीबाड़ी के लोग राजपूत के हजारों श्रद्धालु हर वर्ष यहां पर आकर एक माह तक डेरा डालकर पूजा अर्चना करते हैं। पिछले दिनों नगर के बुद्धिजीवियों इलाहाबांस केवल योजना का भ्रमण किया। पुरातत्व के इतिहास के समझाने का प्रयास किया गया। यहां पर काफी समय से श्रद्धालु आकर पूजा अर्चना करते हैं और मनौतियां मांगते हैं। देवी उनकी मनौतियों को स्वीकार करती है। यहां पर हर वर्ष मेले का विशाल आयोजन किया जाता है। सुरक्षा व्यवस्था की दृष्टि से पुलिस बल मुस्तैद रहता है। यह एक खासियत है लेकिन पुरातत्व विभाग की लापरवाही एवं उदासीनता के चलते धीरे-धीरे यह टीले अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं।


